वीरांगना दुर्गावती की आत्म उत्सर्ग गाथा

प्रत्येक राज सत्ता कि व्यवस्था, राजा-रानी की चरित्र का वर्णन करने कि संकलन करना एक जटिल समस्या होती है और इतिहासविद राज सत्ता कि विभिन्न घटना कम को अपनी जानकारी के आधार पर सारे तथ्यों को संकलित करके वृतान्त लिखते है। कभी-कभी इतिहासविद किसी राज्य सत्ता के शासकों की वृतान्त को लिखने से वंचित हो जाते है। फिर भी इतिहासकार छूटी हुई राजसता का अपने जानकारी के श्रोत के आधार पर कुछ अवश्य लिखते हैं।

मैं उपलब्ध तथ्यों के आधार पर एक वीरांगना महारानी दुर्गावती के युद्ध कौशल की नीतियों के जीवन पर इस लेख में वर्णन कर रहा हूँ।

महारानी दुर्गावती कौन थी इसकी जानकारी इतिहासविद बहुत सुक्ष्म दिये है। रानी दुर्गावती का इतिहास गौरवशाली एक गाथा है। महोवा के राजा कीर्ति सिंह की एक पुत्री थी जिसका नाम दुर्गावती था। दुर्गावती के पिता का नाम कई इतिहासकारों ने शालीवाहन हरिराम व चन्दन राय लिखा है। जो पूर्णतः मिथ्या है। राजधानी कालिंजर (महोबा) के राजा कीर्ति सिंह चन्देला राजपूत थे और इनकी ही पुत्री दुर्गावती थी। जिसका जन्म 5 अक्टूबर 1524 को महोबा में हुआ था। जो उत्तर प्रदेश राज्य का एक जनपद इस समय है। दुर्गावती का विवाह मण्डला के राजा संग्राम सिंह के पुत्र दलपतिशाह के साथ हुआ था। दलपतिशाह जब राजकुमार थे। ये मण्डला राज्य के उत्तरी क्षेत्र की रखवाली करते थे। जो महोबा राज्य के सीमा से सटा था। पुरुष वेष में एक योद्धा के रूप में बराबर दुर्गावती अपने पिता कीर्ति सिंह के राज्य सीमा उत्तर भाग जहां गढ़ा मण्डला राज्य कि सीमा पड़ती थी। अपने सहेलियों के साथ घोड़े पर सवार होकर प्रायः जाया आया करती थी। संयोग से एक दिन दुर्गावती गढ़ा मण्डला के राज्य सीमा में पहुंच गयीं। रास्ते में कई शेर बैठे थे। दुर्गावती आगे बढ़ने की साहस नहीं कर पा रही थी।

इसी बीच राजकुमार दलपतिशाह घोड़े पर सवार होकर दुर्गावती को देखते हुए आगे बढ़े। जो शेर रास्ते में बैठे थे उन्हें दलपतिशाह ने जंगल में भगा दिया। इसे देख कर दुर्गावती विस्मित हो गई और दलपतिशाह से विवाह करने की अपने मन में सोच लिया। इसने तत्काल विवाह का प्रस्ताव भी दलपतिशाह के पास जाकर स्वयं कर दिया। दुर्गावती ने अपना एक पत्र दलपतिशाह के पास भेजा। जिसमें इसने दलपतिशाह से विवाह करने की बात लिखी थी। जिस पत्र को दुर्गावती ने राजकुमार दलपतिशाह को भेजा था दलपतिशाह और दुर्गावती का विवाह सिंगौर गढ़ के एक मनिया देवी मंदिर में गंधर्व विवाह के रूप में हुआ। यह तथ्य 1541 की है।

दलपतिशाह गोंड जाति के राजा थे। इन्होंने अपने पिता संग्राम सिंह कि सन् 1537 में मृत्यु होने के बाद गढ़ा राज्य गोंडवाना का महाराजा पद सम्माला। दलपतिशाह कि मृत्यु भी राज्य भार सम्भाले के 08 वर्ष बाद ही हो गई। जिनका एक पुत्र नारायन नाम का तब 3 वर्ष का था। इस नारायन को गढा राज्य का राजभार मिला और महारानी दुर्गावती एक संरक्षिका के रूप में राज्यभार को गढ़ा में कुशल शासक के रूप में संचालन करने लगी।

गोंडवाना राज्य की सीमा पश्चिम दिशा में सन् 1561 तक खान देश (अब महाराष्ट्र) की सीमा तक (सन् 1960 में महाराष्ट्र प्रदेश बना) था और खान देश के शासक बादशाह बाज बहादुर खान थे ने तब गढ़ा राजधानी गोंडवाना राज्य की था इसे विजित करने के लिये अपनी सेना के साथ आक्रमण कर दिया। रानी दुर्गावती ने बाज बहादुर से युद्ध करने के लिये चाचा फत्ता सिंह को सेना के साथ भेजा। फत्ता सिंह युद्ध करते समय बाज बहादुर की सेना द्वारा युद्ध भूमि में मारे गये। जब इसकी सूचना रानी दुर्गावती को गोंडवाना राज्य की राजधानी गढ़ा आकर एक सैनिक ने दी रानी दुर्गावती तुरन्त विशाल सेना के साथ अपने सरमन हाथी पर योद्धा के रूप में सवार होकर बाज बहादुर की सेना से लड़ने के लिये युद्ध स्थल पर जा पहुँची और शत्रु सेना का संहार करते-करते बाज बहादुर को बंदी बनाकर अपनी राजधानी गढ़ा (मण्डला) लेकर आ गयी।

जब बाज बहादुर की पत्नी (बेगम) को इसकी सूचना मिली बाज बहादुर को मुक्त कराने के लिये गढ़ा आकर रानी दुर्गावती से अपने पति (सौहर) को छोड़ देने की याचना करने लगी। बेगम के आँखों में पति वियोग का आंसू जमीन पर टपकने लगा। रानी ने एक पत्नी की मन की व्यथा को जान गई और सम्मानपूर्वक बाज बहादुर को मुक्त करके उपहार देकर खान देश तक अपने सैनिकों को उनकी पत्नी के साथ पहुंचाया। 

रानी दुर्गावती अपने किशोरावस्था से लेकर मरने पर्यन्त 24 जून 1564 तक तीन मुस्लिम शासकों को पांच बार परास्त किया। ऐसा सौर्य गाथा विश्व स्तर पर रानी दुर्गावती जैसा वृतान्त नहीं मिलेगा।

जलालुद्दीन अकबर ने क्रोध में ऑकर गढ़ा (गोंडवाना राज्य) पर विशाल सेना के साथ अपने सेनापति आसफ खाँ को आक्रमण करने के लिये भेजा। आसफ खाँ सेना लेकर कडा होते हुए दमोह में रुका। यहाँ से आसफ खाँ ने गोंडवाना राज्य कि राजधानी गढ़ा पर अधिकार करने के लिये पहला आक्रमण सिंगौर गढ़ पर किया। इसके बाद दुसरा आक्रमण चन्डाल भाटा में किया जहां रानी दुर्गावती का निजी अंग रक्षक बदन सिंह से गुप्त भेट हुई। इसी बदन सिंह ने विश्वासघात किया। आसफ खां की चण्डाल भाटा में पराजय हुई। पुनः तीसरी बार आसफ खाँ ने रानी दुर्गावती के राज्य गोंडवाना पर गौरैयाघाट पर हमला किया। रानी दुर्गावती ने अपने विश्वासपात्र मंत्रिमण्डल से राय परामर्श किया और रानी ने मंत्रिमण्डल और सेनापति मिया रूमी खाँ से कहा कि शत्रु के पास अधिक सैन्यबल और तोपखाना है। मैदानी भाग में शत्रु से युद्ध करना ठीक नहीं शत्रु को पहाड़ी क्षेत्र में युद्ध करने के लिये समर नीति बनाई गई। इस सारी योजना कि जानकारी विश्वासघाती बदन सिंह को होती थी। रानी ने आसफ खाँ से युद्ध करने में इस बात की भी ध्यान रखी कि मुगल सेना में तोपखाना भी है।

थोड़ा सा संक्षिप्त जानकारी नीच बदन सिंह के सम्बन्ध में देना आवश्यक समझता हूँ। बदन सिंह एक निर्धन चन्देल राजपूत था जो रानी दुर्गावती के मायका के कालिंजर (महोवा) का ही रहने वाला था। इस नीच को रानी दुर्गावती ने अपना अंगरक्षक के रूप में रख लिया। राजा दलपतिशाह का देहान्त बहुत कम समय तक शासन करने कि अवधि में सन् 1551 में हो गया। रानी विधवा हो गई और गढ़ा राज्य के सिंहासन पर अपने तीन वर्षीय पुत्र नारायन को बिठाकर स्वयं गढ़ा की शासन को कुशलता से चलाने लगी।

एक दिन कपटी अधमी पुरुष बदन सिंह ने रानी को एकान्त में पाकर रानी दुर्गावती के साथ विवाह करने कि घृष्ठता कर बैठा। रानी बहुत कुपित हुई। फिर भी बदन सिंह को अपने मायका का होने के कारण उसने अपना अंग रक्षक बनाये रखा। रानी दुर्गावती एक कुशल योद्धा के साथ राज शासक भी थी। उसमे जरा भी किसी बात का भय न था और न तो बदन सिंह के प्रति रानी ने कोई अविश्वास किया।

नियति एक ऐसी अजर शक्ति है जो दृढ़ता का परिचायक होती है। विश्वास घातियों का अंत स्वयं होता आ रहा है। आप इतिहास का पन्ना पलटें तो बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के विश्वासघाती मीरजाफर इसके पुत्र मीरन की मृत्यु हो या झांसी कि रानी लक्ष्मी बाई के देवर सदाशिव की और राणा प्रताप के सगा भाई शक्ति सिंह, गुरुगोविन्द सिंह का घाती श्री कालू, सिराजुद्दौला का अमीचन्द, राजा जयचन्द ने जो पृथ्वीराज चौहान राजा का शसुर व्यक्ति रहा हो या दशानन (रावण) का सौतेला भाई विभिषण और कुबेर। ऐसे लोग सदा तिरस्कृति रहते हैं। रानी सारंधा, चाँद बीबी, पद्यमिनी, लक्ष्मीबाई, जीनतमहल जैसी बेगम सरिखा वीरांगनायें सदैव अमर रहेगी।

अब मैं रानी दुर्गावती और अकबर की सेना का उस भयंकर युद्ध का सार नीचे लिख रहा हूँ। गौरैयाघाट की युद्ध को टाल कर अपनी कुशाग्र रण नीति अपना कर रानी दुर्गावती ने दुर्गम पहाड़ियों के मार्ग में अकबर की सेना से युद्ध करते हुए चौरागढ़ के दुर्ग के पास पहुँच गई। 23 जून, 1564 को मुगल सेना और दुर्गावती के सेना के साथ भयंकर युद्ध हुआ। आसफ खाँ की सेना विशाल थी और तोपे भी। मुगल सेना चौरागढ़ के दुर्ग में जो नरई-नाला के बीच में था 24 जून 1564 को दुर्ग में द्वार को तोड़कर प्रवेश कर गई। रानी दुर्गावती अपने हाथी सरमन पर सवार होकर मुगल सेना को काट रही थी। रानी को कई विषैला तीर इनके गर्दन में वेध दिया। वह घायल हो गई। अपने को शत्रु से घिरा पाकर रण क्षेत्र से बाहर निकल गई और अपने विश्वासी सैनिकों से अपने अबोध पुत्र नारायण को चौरागढ़ के दुर्ग से सुरक्षित निकालकर बाहर भिजवाकर। पुनः युद्ध भूमि में घायलावस्था में आ डटी। रानी युद्ध जीतने ही वाली थी कि विश्वास घाती बदन सिंह ने दुर्ग के पास के नरई नाला का बांध शत्रु सेना से कटवा दिया। चौरागढ़ का दुर्ग पानी से चारों और भर जाने से खाईया डुब गई। बाढ़ नाला में आ गई। रानी दुर्गावती शत्रु की सेना से घिरा पाकर, अपनी कटार स्वयं अपने वक्ष में घोप कर रणक्षेत्र में वीर गति प्राप्त की। स्वामी भक्त हाथी सरमन ने भी चिघाड़ मार कर अपना प्राण छोड़ दिया। वीरांगना रानी दुर्गावती ने 24 जून 1564 को सदा के लिये यह संसार छोड़ दिया। रानी दुर्गावती की वीर गाथा इनके अविवाहित रहते कालींजर के दुर्ग पर शेरशाह सूरी द्वारा तब किया गया आक्रमण को अपने पिता कीर्ति सिंह के साथ किशोरावस्था में दुर्ग में प्रवेश करके एक कुशल रणनीति से कालिंजर के दुर्ग के युद्ध भूमि शेर शाह सूरी व इसके सेनापति तक सैकड़ों सैनिकों को घायल करके इसके सेनापति को कालिंजर के दुर्ग में मार डाला था।

आसफ खां 24 जून, 1564 को चौरागढ़ का युद्ध जीतने के बाद इस दुर्ग में रखे सोना, चाँदी, हीरा, अस्त्र-शस्त्र लूट लिया और वह जलालुद्दीन अकबर की राजधानी फत्तेहपुर सीकरी न जाकर वह जौनपुर चला गया। आसफ खां गोंड राजवंश का राजचिन्ह हाथी की पीठ पर सींग वाला शेर भी साथ लाया जो आज भी जौनपुर की शाही पुल (सेतु) पर प्रतीक रूप में वर्तमान है। जब गोंड सैनिकों को यह ज्ञात हुआ कि आसफ खां मुगल सेना लेकर फतेहपुर सिकरी (आगरा) न जाकर जौनपुर (वाराणसी) के पास चला गया है, गोंड सैनिक जौनपुर आ धमके और आसफ खाँ की स्वागत करने की दुरभि नीति बनाकर चौरागढ़ के दुर्ग में ले गये। बड़ा उत्सव हुआ और चौरागढ़ के दुर्ग में आसफ खां की सिर को धड़ से काट कर दो भाग करके चौरागढ़ के किला में ही दो गढ्ढों में गाड़ दिया गया। इस प्रकार मुगल शासक बलवान जलालुद्दीन अकबर की सेना से लड़कर वीरांगना महारानी दुर्गावती ने मृत्यु के बाद भी वह अपनी आत्मा को शांत किया। वीरांगना रानी दुर्गावती की शौर्य कीर्ति की गाथा वंश का एक गौरवशाली गोंडवाना राज्य का इतिहास आज भी इतिहासकारों को उत्प्रेरित करता है। सन् 1551 से सन् 1858 तक लगातार इस गोंड वंशज के 63 राजा यादव राय से लेकर रानी (कटंगा) की फूल कुंवरी की वृतान्त क्यों लोप करने का आज प्रयास किया जा रहा है?







सुदेश्वर अनाम

निर्धारिया, बलिया (उ.प्र.) 277001

मो0-9450953150

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