बलिया : समान नागरिक संहिता, वरदान या अभिशाप : डॉ. नवचंद्र तिवारी

 


बलिया। हमारे देश में आजादी के पश्चात संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 के माध्यम से नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुसार समान नागरिक संहिता की कल्पना की थी। अंग्रेजों ने भी अपने शासनकाल में हिंदू धर्म में व्याप्त अनेक कुरीतियों को भारतीय समाज सुधारकों के प्रयास से समाप्त किया था। जैसे-सती प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह, लैंगिक भेदभाव आदि। इसके उन्मूलन होने से आधी आबादी ने राहत की सांस ली थी। उसे विकास के मार्ग को आत्मसात करने का अवसर मिला था।1956 से हिंदू मैरिज एक्ट लागू है। 2005 में हिंदू कानून के तहत बेटियों को भी पैतृक संपत्ति में हक मिलने का प्रावधान लागू किया गया जो नैतिक, तार्किक व समय की मांग है। 

शिक्षक व साहित्यकार डॉ नवचंद्र तिवारी ने आगे बताया कि उपरोक्त लागू कानून व नियमों का विरोध भी नहीं हुआ और होना भी नहीं चाहिए था। क्योंकि इससे सामाजिक भलाई हुई और लोगों को हक मिला। अब यदि यूसीसी के तहत वर्तमान शासन संपूर्ण देश में एक समान संहिता लागू करने जा रही है तो इसे बहस का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। मिल-बैठकर आपसी सहमति से इसका अनुमोदन करना चाहिए। एक देश, एक कानून तो अमेरिका, आयरलैंड, मिस्र, सूडान, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि देशों में भी लागू है।

यद्यपि भारत एक विशाल देश है। यहां अनेक जाति, धर्म, संप्रदाय के लोग रहते हैं। फिर भी विविधता में एकता है। संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। अर्थात सभी धर्म समान हैं। अपनी प्रतिष्ठापूर्ण परंपराओं सम्यक ज्ञान व उदारता से भारत विश्व गुरु भी रहा है। जाति, धर्म, आस्था से बढ़कर देश का नागरिक व देशभक्त होना है।

उदाहरणार्थ यदि 80% हिंदू आबादी वाले देश में हिंदुओं के निमित्त हम दो-हमारे दो, पर्दा प्रथा की समाप्ति, लैंगिक भेदभाव का निवारण, पत्नी के रहते बहूविवाह प्रथा पर पाबंदी। फिर कोई दूसरे धर्म के लोग यदि कहते हैं कि हम एक पत्नी के रहते चार विवाह कर सकते हैं। मात्र तीन तलाक कह देने से विवाह विच्छेद हो जाता है। नसबंदी अथवा परिवार नियोजन से ईश्वर/अल्लाह नाराज हो जाएगा। वगैरह-वगैराह की भ्रांतियां। तो यह तथ्य या सुझाव अतार्किक एवं मानसिक संकीर्णताओं को दर्शाने वाला ही है। यह भेदभाव की पृष्ठभूमि तैयार करता है। दो पर्सनल लॉ नहीं होने चाहिए।

क्षमा कीजिएगा। ऐसी विचारधारा से मैं किसी धर्म विशेष को आहत नहीं करना चाहता। परंतु समान नागरिक संहिता से सामाजिक कल्याण ही होगा। एक देश, एक कानून की अवधारणा व परिपालन से पहचान भी एक होगी। महिला सशक्तिकरण को बल मिलेगा। यह न्याय संगत व समय की मांग है। आधी आबादी को अंधेरों में रखकर पुरुष वर्चस्ववादी सोच बदली है। शिक्षा की अनिवार्यता से समाज ने करवट बदली है। विकास की एक नई दिशा मिली है। यह सदी

वैज्ञानिक व सकारात्मक विकास की है। न कि इस संदर्भ में पूर्वोत्तर राज्यों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के हितों या परंपरा को नुकसान करार देकर बहाना बनाने का।

कहना गलत न होगा कि सभी दलों को वोट बैंक की निम्न राजनीति से ऊपर उठ कर इसे गंभीरता से लेना चाहिए। शादी, तलाक उत्तराधिकार, गोद लेना आदि सामाजिक कार्यों में एक समान विचार व एक समान कानून न्याय संगत होगा।

 (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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