दिन-रात साल महीना देखते-देखते
बरसों बीत गया
घर की आंगन और माँ
दोनों की नजरें अभी भी दरवाजे की उस कोन पर अटकी है...
लेकिन नई पीढ़ियों को इसका कोई गम नहीं है
बूढ़े बाप का सहारा बना लाठी भी अब बेसहारा हो चला है....
लेकिन नई पीढ़ी को इसका कोई गम नहीं है
जलती, खिलखिलाती, आंगन का चुल्हा
भी बुझने वह उदास रहने लगा हैं....
लेकिन नयी पीढ़ियों को इसका कोई गम नहीं है
सिर्फ एक वजह में लिप्त होकर,
ये, जिम्मेदारियों से मुंह फेरे हैं ......
आवाज लगाता है घर का पुराना मकान तो
यह कहते हैं फुर्सत नहीं है .....
किसी को कमाई से फुर्सत नहीं,
किसी को लुगाई से फुर्सत नहीं
और तो और किसी को शहर की जुदाई से फुर्सत नहीं है .....
लेकिन नयी पीढ़ियों को इसका कोई गम नहीं है...
जानकी सूरी गौर ✍
बलिया।
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