वैदिक वाङ्मय को चार भागों में बाँटा गया है :-
1- वेद संहिता।
2- ब्राह्मण ग्रन्थ।
3- आरण्यक ग्रन्थ।
4- उपनिषद्।
वर्तमान समय में वैदिक वाङ्मय ही हिन्दू धर्म के प्राचीनतम स्वरूप पर प्रकाश डालने वाले विश्व के प्राचीनतम् स्रोत है।पुनर्जन्म की जो व्याख्या सनातन वैदिक वाङ्मय में उपलब्ध है उस पर पाश्चात्य जगत ने भी बहुत से शोध किये हैं।हमारे वैदिक ऋषि मुनियों ने जो ज्ञान हजारों वर्ष पहले अर्जित किया था, सौ-दो सौ साल पहले उसका उपहास उड़ाया जाता था, परंतु आज आधुनिक विज्ञान घूम फिर कर उसी सनातन ज्ञान की ओर आ रहा है। इसलिए पुनर्जन्म पर वैदिक वाङ्मय के दृष्टिकोण से विचार करने से पूर्व आधुनिक वैज्ञानिक श्रोतों द्वारा उपलब्ध प्रमाणों पर विचार करते हैं।
वर्ष 1957 में युनिवर्सिटी ऑफ वर्जिनिया के साईकाईट्री डिपार्टमेंट के चेयरमैन इयान इस्टिवेंशन ने इस विषय पर अपना एक शोधपत्र जारी किया जिसमें उन्होंने एक व्यक्ति को उसके पूर्वजन्म की घटनाओं को याद करते हुए बताया। उनके शोधपत्र से पश्चिम के एक धनाढ्य व्यक्ति इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने इयान को यह शोध विश्व स्तर पर करने को कहा।उसके पश्चात इयान ने एक टीम बनाकर लगभग 50 वर्षों तक यह शोध किया, जिसमें दुनियाभर के लगभग 2500 प्रकरणों का अध्ययन किया, और आश्चर्यजनक रूप से 1700-1800 प्रकरणों में निष्कर्ष भी निकाला। पूर्वजन्म को याद रखने वाले इन लोगों द्वारा बताई गई घटना, व्यक्ति, स्थान, समय आदि की की पुष्टि भी इयान इस्टिवेंशन की रिसर्च में हुई। इयान इस्टिवेंशन की टीम के सदस्य युनिवर्सिटी ऑफ वर्जिनिया में न्यूरो बिहेवियर साईंस के प्रोफेसर जिम टकर ने एक प्रकरण की जांच की जिसमें एक बच्चा खुद को द्वितीय विश्व युद्ध में मारा गया एक फाइटर पायलट बताता था। उसकी जांच रिपोर्ट को पश्चिम में बहुत प्रसिद्धि मिली थी।अमेरिका के तात्कालिक मीडिया जगत ने इसपर खुलकर चर्चा की थी। उक्त घटना में भी उस बच्चे की बताई गई घटनाएं शब्दशः सत्य साबित हुई थी।
राजस्थान के झालावाड़ के एक तीन साल के बच्चे मोहित ने दावा किया कि उसका पुनर्जन्म हुआ है और उसकी मृत्यु 16 साल पहले हो गई थी. उस बच्चे ने बताया कि उसकी मृत्यु ट्रैक्टर के नीचे दबकर हुई थी. बच्चा ख़ुद को पिछले जन्म का तोरण बताता है. वहीं, मोहित के पिता का कहना है कि वो ट्रैक्टर की आवाज़ से डर जाता है और रोने लगता है. वहीं, जब दावे की छानबीन की गई, तो पता चला कि कोलूखेड़ी कला में रोड निर्माण काम में मजदूरी करने गए तोरण धाकड़ नाम के एक 25 वर्ष के लड़के की ट्रैक्टर के नीचे दबने से मौत हो गई थी. ये घटना इसी वर्ष यानी 2022 की है।
उपरोक्त दो के अतिरिक्त ऐसी हजारों घटनाएं घटी हैं जिनमे पुनर्जन्म के दावे किए गए हैं और वो सत्य भी सिद्ध हुए हैं।पूर्व जन्म के जो भी प्रकरण अब तक प्रकाश में आए हैं उन सब में कुछ विषयों में पूर्णतः समानता रही है। जैसे, ज्यादातर प्रकरणों में पूर्वजन्म को याद करने वाले बच्चे 2 से 5 वर्ष तक की उम्र के होते हैं। 5 वर्ष की उम्र के बाद पूर्वजन्म की स्मृति विस्मृत हो जाती है। पूर्वजन्म में मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच का समय औसतन 4 से 5 वर्ष रहता है।जो मनुष्य पुनर्जन्म को याद कर पाते हैं वह पिछले जन्म में भी मनुष्य ही रहे होते हैं।तभी उन्हें पिछले जन्म की घटनाएं याद रहती हैं। लगभग 80% लोग आकस्मिक मृत्यु को प्राप्त हुए रहते हैं जिसे हम अकाल मृत्यु कहते हैं। चूंकि वे अपने भोगकाल को पूरा नहीं कर पाए, अतः वे आत्माएं पुनः अपने भोगकाल को पूर्ण करने के लिए पुनर्जन्म लेती हैं।कई बच्चों के शरीर पर बर्थमार्क मिलते हैं। जांच में पाया गया है कि यह मार्क ठीक उसी तरह के होते हैं जैसी चोट पिछले जन्म में उनकी मृत्यु के समय लगी होती है।जैसे जलने का निशान, गोली लगने का निशान आदि। हमारा सनातन भी यही कहता है कि पिछले जन्म के निशान पुनर्जन्म पर होते हैं.
पुनर्जन्म के विषय का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद में मिलता है. ऋग्वेद के दशम मंडल के सोलहवें सुक्त के श्लोक संख्या पांच के अनुसार :-
अव॑ सृज॒ पुन॑रग्ने पि॒तृभ्यो॒ यस्त॒ आहु॑त॒श्चर॑ति स्व॒धाभि॑:। आयु॒र्वसा॑न॒ उप॑ वेतु॒ शेष॒: सं ग॑च्छतां त॒न्वा॑ जातवेदः॥
अर्थात:- हे अग्ने ! जो तेरे अन्दर आश्रित हुआ विराजता है, उसको सूर्यरश्मियों के लिये जलों के द्वारा फिर छोड़! हे सर्वत्र विद्यमान अग्ने ! विनाशी पदार्थों के नष्ट हो जाने पर शेष रहनेवाली जीवात्मा शरीर के साथ सङ्गत हो जावे अर्थात् पुनर्जन्म को धारण करे, इस प्रकार कार्य में सहायक बन॥ऋग्वेद के दशम मंडल के 59वें सुक्त के श्लोक संख्या 6 में कहा गया है :-
असु॑नीते॒ पुन॑र॒स्मासु॒ चक्षु॒: पुन॑: प्रा॒णमि॒ह नो॑ धेहि॒ भोग॑म्।ज्योक्प॑श्येम॒ सूर्य॑मु॒च्चर॑न्त॒मनु॑मते मृ॒ळया॑ नः स्व॒स्ति॥
अर्थात :- हे प्राणों को प्राप्त करानेवाले परमात्मन् ! तू इस जीवन में-इस पुनर्जन्म में हमारे निमित्त पुनः नेत्र, पुनः प्राण और भोग पदार्थ को धारण करा जो उदय होते हुए सूर्य को चिरकाल तक देखें, हे आज्ञापक परमेश्वर हमारे लिए कल्याण जैसे हो, ऐसे सुखी कर। यजुर्वेद के अध्याय 4 की मंत्र संख्या 15 के अनुसार :-
पुन॒र्मनः॒ पुन॒रायु॑र्म॒ऽआग॒न् पुनः॑ प्रा॒णः पुन॑रा॒त्मा मऽआग॒न् पुन॒श्चक्षुः॒ पुनः॒ श्रोत्रं॑ म॒ऽआग॑न् वै॒श्वा॒न॒रोऽद॑ब्धस्तनू॒पाऽअ॒ग्निर्नः॑ पातु दुरि॒ताद॑व॒द्यात्॥१५॥
इस श्लोक से सिद्ध होता है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा को पुनः प्राण, श्वांस, नाक, कान आदि इंद्रियां पुनः प्राप्त होती हैं जो कि भौतिक शरीर के द्वारा ही संभव है। इस विषय पर अथर्ववेद के सप्तम कांड के 67वें सुक्त के पहले मंत्र में कहा गया है :-
पुन॑र्मैत्विन्द्रि॒यं पुन॑रा॒त्मा द्रवि॑णं॒ ब्राह्म॑णं च।
पुन॑र॒ग्नयो॒ धिष्ण्या॑ यथास्था॒म क॑ल्पयन्तामि॒हैव॥
इस श्लोक के अनुसार हमें ऐसे कर्म करना चाहिये जिससे हमें पुनः मानव शरीर मिले। वेदों में पुनर्जन्म को संक्षेप में कहा गया है, जिसकी विस्तृत व्याख्या हमें छान्दोग्य उपनिषद में मिलती है। केवल पुनर्जन्म ही नहीं मृत्यु के पश्चात आत्मा की स्थिति और मृत्यु तथा पुनर्जन्म के मध्य आत्मा की यात्रा का भी विस्तृत वर्णन छान्दोग्य उपनिषद में मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद के पंचम खण्ड के दशम अध्याय में वर्णित जानकारी के अनुसार :- जब मृतात्मा अपने मृत शरीर को छोड़कर निकलती है, तो वह तब तक पुनर्जन्म नहीं लेती जब तक उसके कर्मों का क्षय नहीं हो जाता है. जब आत्मा के कर्मों का क्षय हो जाता है अर्थात उसपर पिछले जन्म के कर्मों का कोई प्रभाव शेष नहीं बचता तब आत्मा को पुनः भौतिक शरीर लेना होता है, अर्थात उसे पुनर्जन्म लेना होता है। पूर्वजन्म के कर्मों के क्षय होने तक आत्मा को अव्यक्त रूप में रहना होता है।अव्यक्त अर्थात भौतिक शरीर के साथ जो क्रियाएं आत्मा करती है उनसे विरक्त रहती हैं। पूर्वजन्म के कर्मों का क्षय होने के पश्चात आत्मा एक प्रक्रिया द्वारा पुनर्जन्म को प्राप्त करती है। आत्मा सबसे पहले आकाश में व्याप्त होती है, वहां आत्मा वायु को ग्रहण करती है।वायु को ग्रहण करने के उपरान्त वह जल को ग्रहण करती है। जल ग्रहण करके आत्मा बादलों में व्याप्त हो जाती है, जहां से वर्षा के साथ पृथ्वी पर व्याप्त हो जाती है। पृथ्वी से अग्नि तत्व को ग्रहण करके सर्वप्रथम वनस्पति के रूप में भौतिक स्वरूप प्राप्त करती है। इस प्रक्रिया से हमारे शरीर का निर्माण पंच तत्वों आकाश, वायु, जल, पृथ्वी और अग्नि से होना सिद्ध होता है।आत्मा वनस्पति रूप प्राप्त करने के पश्चात उन जीवों के शरीर में प्रवेश करती है जो उन वनस्पतियों का भक्षण करते हैं, उन्हे खाते हैं। उन जीवों के नर शरीर में शुक्राणु के रूप में मादा शरीर में अण्डाणु के रूप में स्थापित होकर पुनः भौतिक जीव रूप में जन्म लेती हैं।
इस पूरी प्रक्रिया को पढ़ने के बाद मन में प्रश्न आता है कि "जब कर्मों का क्षय हो गया तो मोक्ष मिल जाना चाहिए, फिर पुनर्जन्म क्यों होता है"? इस प्रश्न का उत्तर भी छान्दोग्य उपनिषद में मिलता है। हमारे ऋषि मुनियों ने कर्म तीन प्रकार के बताए हैं :-
1 :- इष्ट कर्म।
2:- पूर्त कर्म।
3:- दत्त कर्म।
प्रथम :- इष्ट कर्म अर्थात वे कर्म जो हम कल्याण की कामना से देवताओं के प्रति करते हैं. जैसे पूजन, यज्ञ, आग्निहोत्र आदि।
द्वितीय :- पूर्त कर्म वे कर्म होते हैं जो हम समाज के प्रति करते हैं। जैसे कोई राजा न्याय करता है, सैनिक रक्षा का कार्य करता है, कृषक उदरपूर्ति हेतु अन्न उगाता है। परमार्थ के लिये मंदिर, तालाब, धर्मशाला आदि का निर्माण करवाया जाता है।
तृतीय :- दत्त कर्म वे कर्म होते हैं जो प्रकृति ने हमें दायित्व दिये हैं, जैसे अपने प्राणों की रक्षा करना, अपने वंशाणुओं को आगे बढ़ाना, अपने परिवार का पोषण व रक्षण करना। मृत्यु के पश्चात इन्हीं तीन कर्मो का क्षय होता है। परंतु कई कर्म ऐसे होते हैं जिन्हें हमें नहीं करना चाहिए फिर भी मनुष्य करता है। उन्हें अप्राकृतिक अथवा अनैतिक कर्म कहा जाता है।जैसे व्यभिचार, हत्या, डकैती, आदि पाप कर्म। इन पाप कर्मों का क्षय आत्मा के अव्यक्त स्थिति में नहीं होता। इन्हें भोगने के लिये हमें पुनर्जन्म लेना ही होता है।
प्राचीन काल में ऋषियों ने स्वयं की खोज की और पाया कि स्वयं शरीर नहीं है परंतु शरीर के अंदर स्थित आत्मा-जो निराकार है-उनका मूल स्वरूप है। आत्मा को जानने की इस प्रक्रिया को आत्मसाक्षात्कार के नाम से जाना जाता है। आत्मा के साक्षात्कार हेतु योग, ज्ञान, भक्ति आदि पद्धतियाँ प्रचलित हैं जिसका आविर्भाव प्राचीन काल में हुआ है। ऋषियों ने स्वयं को जानकर अपने जन्मांतर के ज्ञान की भी प्राप्ति की और पाया कि उनके कई जन्म थे। स्वयं का मूल स्वरूप आत्मा जिसकी कभी मृत्यु नहीं होती; ये पहले था, आज है और कल भी रहेगा। शरीर के मृत्यु के बाद यदि मोक्ष नहीं प्राप्त हुआ तो जीवात्मा पुनः जन्म धारण करता है, पुनः मृत्यु होती है और ये चक्र चलता ही रहता है।
डॉ0 विद्यासागार उपाध्याय
राष्ट्रीय पार्षद, शंकराचार्य परिषद।
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