विज्ञान और धर्म अलग नहीं, बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं! : डॉ. जगदीश गाँधी


विज्ञान व धर्म मिलकर समाज की बेहतर सेवा कर सकते हैं। विज्ञान और धर्म अलग नहीं, बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह धारणा गलत है कि विज्ञान व धर्म साथ-साथ नहीं चल सकते हैं। विज्ञान प्रत्यक्षवाद और धर्म परोक्षवाद पर विश्वास करता है। प्रत्यक्ष व परोक्ष मिलकर एक होते हैं। दुर्भाग्य यह है कि वैज्ञानिकों को धर्म व धर्म से जुड़े लोगों को विज्ञान की जानकारी नहीं है। ऐसे में दोनों को मिलाने की जरूरत है। विज्ञान जड़ पदार्थों से जुड़ा है और धर्म चेतन जगत से संबंध रखता है। पहले धर्म का उद्देश्य मानव समाज को जोड़ना था लेकिन आज इसे समाज को तोड़ने का हथियार बना दिया गया है। विज्ञान और धर्म दोनों ही मनुष्य के जीवन को समान रूप से प्रभावित करते हैं। एक और जहाँ विज्ञान तथ्यों व प्रयोगों पर आधारित है वहीं दूसरी और धर्म आस्था और विश्वास पर। दोनों ही मनुष्य की अपार शक्ति का स्त्रोत हैं।

मनुष्य कभी उड़ते हुए पक्षियों की उड़ान को देखकर परिकल्पना किया करता था कि क्या वह भी इन पक्षियों की भाँति उड़ान भर सकता है। उसकी यह परिकल्पना ही अनेक प्रयोगों का आधार थी। आज अंतरिक्ष की ऊँचाई को नापते हुए वायुयान उन्हीं परिकल्पनाओं का प्रतिफल हैं। इस प्रकार विज्ञान स्वयं में अनंत शक्तियों का भंडार है। विज्ञान के अंतर्गत वह अपनी कल्पनाओं को अपने प्रयोगों के माध्यम से साकार रूप देता है। वह प्रकृति में छिपे गूढ़तम रहस्यों को ढूँढ़ निकालता है। एक रहस्य के उजागर होने पर वह दूसरे रहस्य को खोलने व उसे जानने हेतु प्रयत्नशील हो जाता है।

धर्म भी विज्ञान की ही भाँति अनंत शक्तियों का स्रोत है परंतु धर्म प्रयोगों व तथ्यों पर नहीं अपितु अनुभवों, विश्वासों व आस्थाओं पर आधारित है। मनुष्य की धार्मिक आस्था उसे आत्मबल प्रदान करती है। मनुष्य की समस्त धार्मिक मान्यताएँ किसी अज्ञात शक्ति पर केंद्रित रहती हैं। इस शक्ति का आधार मनुष्य की आस्था व विश्वास होता है। धर्म मनुष्य के चारित्रिक विकास में सहायक होता है। धर्म के मार्ग पर चलकर वह उन समस्त जीवन मूल्यों को आत्मसात् करता है जो उसके चारित्रिक विकास में सहायक होते हैं। सद्गुणों को अपनाना अथवा सन्मार्ग पर चलना ही धर्म है। वे सभी सत्य जो मानवता के विरूद्ध हैं वे अधर्म हैं। दूसरों का हित करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है तथा दूसरों का अहित करने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेक रूपों में विज्ञान धर्म का ही एक रूप है। धर्म और विज्ञान दोनों के परस्पर समान गुणों के कारण ही एक-दूसरे का पूरक माना गया है। विज्ञान और धर्म दोनों ही मनुष्य की असीमित शक्ति का स्रोत हैं। विज्ञान जहाँ मनुष्य को भौतिक गुण प्रदान करता है वहीं धर्म उसे आत्मिक सुख की ओर ले जाता है। दोनों के परस्पर समन्वय से ही मनुष्य पूर्ण आत्मिक सुख, सफलता तथा समृद्धि की प्राप्ति कर सकता है।

धर्मरहित विज्ञान मनुष्य को सुख तो प्रदान कर सकता है परंतु यह उसे कभी-कभी विनाश के कगार पर भी ला खड़ा करता है। विज्ञान के वरदान से जहाँ मनुष्य चंद्रमा पर अपनी विजय पताका फहरा चुका है वहीं दूसरी ओर उसने परमाणु बम जैसे हथियार विकसित कर लिए हैं जिसने उसे विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। धर्म और विज्ञान का समन्वय ही मानवमात्र में संतुलन स्थापित कर सकता है, उसे पतन की ओर जाने से रोक सकता है। यह समन्वय आज की प्रमुख आवश्यकता है।

धर्म प्रायः मनुष्य की आस्था व विश्वास पर आधारित है परंतु यह भी सत्य है कि कभी-कभी हमारी आस्थाएँ निराधार होती हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार लोग चंद्रमा को ईश्वर का रूप मानते थे परंतु विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि यह मिथ्या है। चंद्रमा, पृथ्वी की भांति ही है। यह एक उपग्रह है। इस प्रकार हमारी धार्मिक मान्यताएँ समय-समय पर विज्ञान के द्वारा खंडित होती रही हैं।

विज्ञान के प्रयोगों व नित नए अनुसंधानों ने प्रकृति के अनेक गूढ़ रहस्यों को उजागर किया है परंतु अभी भी ऐसे अनगिनत रहस्य हैं जो विज्ञान की परिधि से बाहर हैं। विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि एक ऐसी परम शक्ति अवश्य है जो समस्त शक्तियों का केंद्र है। अतः जब मनुष्य के लिए सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तब वह उन परम शक्तियों का स्मरण करता है।

अतः यह सत्य है कि विज्ञान और धर्म का परस्पर समन्वय ही उसे प्रगति के उत्कर्ष तक ले जा सकता है। जब विज्ञान का सहारा लेकर मनुष्य कुमार्ग पर चल पड़ता है तब धर्म का संबल प्राप्त करना अनिवार्य हो जाता है। धर्म इस स्थिति में मनुष्य का तारणहार बन जाता है। दूसरी ओर जब धर्म की छत्रछाया में अधार्मिक व्यक्तियों का समूह आम लोगों को ठगने का प्रयास करते हैं तब विज्ञान का आलोक उन्हें सीधे रास्ते पर लाने की चेष्टा करता है।

बच्चों की शिक्षा के द्वारा हम बालक का वैज्ञानिक, मानवीय तथा विश्वव्यापी दृष्टिकोण विकसित कर रहे हैं। बच्चांे को बाल्यावस्था से ही घर में माता-पिता तथा स्कूल में टीचर्स द्वारा बताना चाहिए कि ईश्वर एक है, उसका धर्म एक है तथा सारी मानव जाति एक है। मानव जाति के पास मानव सभ्यता का जो इतिहास 

उपलब्ध है उसके अनुसार परमपिता परमात्मा की ओर से युग-युग में भेजे गये महान अवतारों राम (7500 वर्ष पूर्व), कृष्ण (5000 वर्ष पूर्व), बुद्ध (2500 वर्ष पूर्व), ईसा मसीह (2000 वर्ष पूर्व), मोहम्मद साहब (1400 वर्ष पूर्व), गुरू नानक देव (500 वर्ष पूर्व) तथा बहाउल्लाह (200 वर्ष पूर्व) धरती पर अवतरित हुए हैं। 

स्कूलों के माध्यम से संसार के प्रत्येक बालक को राम की मर्यादा, कृष्ण की न्याय, बुद्ध की सम्यक ज्ञान, ईशु की करूणा, मोहम्मद साहेब की भाईचारा, गुरू नानक की त्याग और बहाल्लाह की हृदय की एकता की शिक्षाओं का ज्ञान कराया जाना चाहिए। एक ही परमपिता परमात्मा की ओर से युग-युग में अपने संदेशवाहकों के द्वारा भेजे गये पवित्र ग्रन्थों- गीता, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान शरीफ, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस में संकलित परमात्मा की एक जैसी मूल शिक्षाओं का ज्ञान प्रत्येक बालक को स्कूल के माध्यम से कराया जाना चाहिए तथा परमात्मा की शिक्षाओं को जानकर उसके अनुसार अपना जीवन जीना चाहिए। 

आज आधुनिक विद्यालयों के द्वारा बच्चों को एकांकी शिक्षा अर्थात केवल भौतिक शिक्षा ही दी जा रही है, जबकि मनुष्य की तीन वास्तविकतायें होती हैं। पहला- मनुष्य एक भौतिक प्राणी है, दूसरा- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा तीसरा मनुष्य- एक आध्यात्मिक प्राणी है। इस प्रकार मनुष्य के जीवन में भौतिकता, सामाजिकता तथा आध्यात्मिकता का संतुलन जरूरी है। सीएमएस में प्रत्येक बालक की तीनों वास्तविकताओं को ध्यान में रखते हुए भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार की संतुलित शिक्षा देने के लिए 2000 से अधिक टीचर्स तथा 1000 से अधिक सहयोगी कार्यकर्ता पूरे मनोयोग तथा समर्पित भाव से रात-दिन संलग्न हैं।

सीएमएस का 63 वर्षों के व्यापक शैक्षिक अनुभव के आधार पर मानना है कि मनुष्य की ओर से सर्वशक्तिमान परमेश्वर को अर्पित की जाने वाली समस्त सम्भव सेवाओं में से सर्वाधिक महान सेवा है- (अ) बच्चों की शिक्षा, (ब) उनके चरित्र का निर्माण तथा (स) उनके हृदय में परमात्मा के प्रति अटूट प्रेम उत्पन्न करना। युद्ध के विचार सबसे पहले मनुष्य के मस्तिष्क में पैदा होते हैं अतः दुनियाँ से युद्धों को समाप्त करने के लिये मनुष्य के मस्तिष्क में ही शान्ति के विचार उत्पन्न करने होंगे। शान्ति के विचार देने के लिए मनुष्य की सबसे श्रेष्ठ अवस्था बचपन है। 

स्कूल चार दीवारों वाला एक ऐसा भवन है जिसमें कल का भविष्य छिपा है। मनुष्य तथा मानव जाति का भाग्य क्लास रूम में गढ़ा जाता है। शिक्षकों को पूरे मनोयोग से विद्यालय को लघु विश्व का मॉडल तथा बच्चों को विश्व नागरिक बनाना चाहिए। चरित्र निर्माण एवं विश्व एकता की शिक्षा इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है! अभिभावकों को भी विद्यालय में मिल रहे इन विचारों के अनुकूल घरों में ये विचार अपने बच्चों को बाल्यावस्था से देना चाहिए। विद्यालय तथा घर ही सबसे बड़े तीर्थधाम हैं। पारिवारिक एकता के द्वारा विश्व एकता की शिक्षा इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। 

----------- वसुधैव कुटुम्बकम् - जय जगत-----------


डॉ. जगदीश गाँधी 

शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक 

सिटी मोन्टेसरी स्कूल (सीएमएस), लखनऊ। 



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