यथा वृष्टिं प्रतीक्षन्ते भूमिष्ठा: सर्वजनत्व:।
पितरश्च तथा लोके पितृमेधं शुभेक्षणे।।
अर्थात हे शुभेक्षणे! जैसे भूमि पर रहने वाले सभी प्राणी वर्षा की बाट जोहते हैं, उसी प्रकार पितृ लोक में रहने वाले पितर श्राद्ध की प्रतीक्षा करते रहते हैं। (महाभारतअनुशासन पर्व 145/12)
इस सृष्टि में प्रत्येक वस्तु अथवा प्राणी का जोड़ा है। जैसे - रात और दिन, अंधकार और प्रकाश, सफ़ेद और काला, धनी और निर्धन अथवा नर और नारी इत्यादि बहुत गिनवाये जा सकते हैं। सभी अपने जोड़े से सार्थक है अथवा एक-दूसरे के पूरक है। दोनों एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। इसी तरह दृश्य और अदृश्य जगत का भी जोड़ा है। दृश्य जगत वो है जो हमें दिखता है और अदृश्य जगत वो है जो हमें नहीं दिखता। ये भी एक-दूसरे पर निर्भर है और एक-दूसरे के पूरक हैं। पितृ-लोक भी अदृश्य-जगत का हिस्सा है और अपनी सक्रियता के लिये दृश्य जगत के श्राद्ध पर निर्भर है। वर्ष में १५ दिन का पितृपक्ष हमारे अदृश्य जगत में विद्यमान उन पितरों की स्मृति का पर्व है जो नहीं होते तो हम भी इस धरा पर नहीं आये होते।पितृपक्ष हमारे समस्त पितृ परंपरा के वंदना का व्रत है। यह कृतज्ञता और आभार के कीर्तन का काल है। यह अदृश्य अतिथियों के आगमन का उत्सव है, जो इसी बहाने जीवन की आपाधापी में जुटे हमारे अपने कुटुंबीजनों को एक पंगत में ले आता है। यह श्रद्धा भाव से पितरों को तृप्त करने का कर्म है। इसीलिए यह श्राद्ध है क्योंकि इसमें उनके प्रति श्रद्धा है जिनसे हम हैं। यह तृप्त करने का कर्म है इसलिए तर्पण है। यह एक तरह से वृक्ष के शिखर पर गगनचुंबी पत्तों द्वारा अपनी जड़ों का अभिषेक है।पितृ पक्ष भारतीय संस्कृति का अद्भुत महापर्व है। इसकी महिमा देखिए कि हिंदुओं के प्रमुख त्यौहार जैसे दशहरा, राखी, होली, श्री राम नवमी, श्री कृष्ण जन्माष्टमी, महाशिवरात्रि आदि एक दिन मनाए जाते हैं। दीपावली पांच दिन, नवरात्रि नौ दिन, गणेशोत्सव दस दिन का होता है, लेकिन पितृ पक्ष पूरे सोलह दिन का उत्सव है। शास्त्रों में इसे महालय कहा गया है। महा- अर्थात उत्सव और आलय- अर्थात घर। पितृलोक से पृथ्वी लोक पर पितरो के आने का मुख्य कारण उनकी पुत्र-पौत्रादि से आशा होती है की वे उन्हें अपनी यथासंभव शक्ति के अनुसार पिंडदान करे, अतएव प्रत्येक सद्गृहस्थ का धर्म है कि स्पष्ट तिथि के अनुसार श्राद्ध अवस्य करे। धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है। पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है। शास्त्र कहते हैं कि जो चले गए हैं, हमारे स्वजन थे, परिजन थे, पूज्य थे।स्वभावत: उनके जाने पर एक खालीपन हम अनुभव करते हैं, लेकिन इस खालीपन की अभिव्यक्ति यदि शोक, प्रलाप या आंसुओं में होती है तो यह न तो उचित है, न ही शास्त्र सम्मत। इतना ही नही शोक और उनके वियोग में आंसू बहाकर हम अपने दिवंगत परिजनों को कष्ट ही देते हैं।श्रीमद्भगवत गीता के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में भगवान अर्जुन को कहते हैं-
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्चभाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्तिपण्डिताः ॥
अर्थात जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए पंडित लोग शोक नहीं करते।इसका कारण वे इसके ठीक अगले श्लोक में समझाते हैं...
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा |
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम् || 12||
अर्थात ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी काल में मैं नहीं था, तू नहीं था और ये सब लोग नहीं थे और न ही आगे ऐसा होगा कि ये सब नहीं रहेंगे।आशय यह है कि आत्मा अमर है, शरीर नश्वर है। जो अमर है वह अमर ही रहेगा और जो नश्वर है उसका नाश होगा ही। तो जो पंडितजन अर्थात सही और गलत, सत और असत का भेद जानते हैं वे आत्मा के लिए इसलिए शोक नहीं करते, क्योकि वह अमर है और शरीर के लिए इसलिए शोक नहीं करते क्योंकि शरीर तो नश्वर ही है। पितृपक्ष तो उत्सव है, हमारे दिवंगत पूर्वजों के आगमन का जो देह त्याग के बाद पितृलोक के वासी हैं और पितृ पक्ष में हमारी श्रद्धा से तृप्त होने, हमारे श्राद्ध का तर्पण गृहण करने हमारे घर, अपने वंशजों के पास आते हैं। यह दिवंगत पूर्वजों से जुड़ा पर्व है, कदाचित इसीलिए जाने-अनजाने शोक और अशुभ मान लिया गया, लेकिन इससे अद्भुत कोई पर्व नहीं।हमारे घर में कोई अतिथि का आगमन होता है तो हम कितने प्रसन्न होते हैं, कितनी श्रद्धा से उसका सत्कार करते हैं और कितने उत्साह से नाना सुस्वादु व्यंजन बनाकर अतिथि को परोसते हैं। श्राद्ध पक्ष में हमारे पितर हमारे घर पधारते हैं। हमारे वे पूर्वज जिन्होंने हमें जन्म दिया, जीवन दिया, ज्ञान और संस्कार दिए और हमें अपनी सत्ता दी। जिनसे हमारा अस्तित्व है, जो हमारी समस्त पितृ परंपरा के उत्स हैं, उसकी विकास यात्रा के स्रोत हैं। वे थे तो हम हैं, जब वे पधारते हैं तो क्यों न हमारे घर में उत्सव हो। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी जब सूर्य नारायण कन्या राशि में विचरण करते हैं तब पितृलोक पृथ्वी लोक के सबसे अधिक नजदीक आता है। श्राद्ध का अर्थ पूर्वजों के प्रति श्रद्धा भाव ही है। जो मनुष्य उनके प्रति उनके गमन तिथि पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार फल-फूल, अन्न, मिष्ठान आदि से श्राद्ध कराते हैं, उस पर प्रसन्न होकर पितर उसे आशीर्वाद देकर जाते हैं। श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है। इसे पितृयज्ञ भी कहते हैं। श्राद्ध के द्वारा व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है और पितरों को संतुष्ट करके स्वयं की मुक्ति के मार्ग पर बढ़ता है। संसार में उनसे अधिक धनी, शक्ति संपन्न और सौभाग्यशाली कोई नहीं है, जिनके माता-पिता सशरीर हैं, साथ हैं, प्रसन्न हैं और श्रद्धा से तृप्त हो रहे हैं। सच मानिये जिसके सिर पर माता-पिता का हाथ है वह ईश्वर से भी अड़ जाए, यमराज से भी लड़ जाए तो विजय उसी की होगी, क्योंकि उसके पास माता-पिता हैं। माता-पिता घर में है तो हर दिन उत्सव है। यदि नहीं है तो श्राद्ध पक्ष महालय बनकर आता है। आपकी श्रद्धा से तृप्त माता-पिता का आशीष बाकी दिनों को उत्सव ही कर जाता है।भारतीय शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि, पितृगण पितृपक्ष में पृथ्वी पर आते हैं, और 15 दिनों तक पृथ्वी पर रहने के बाद अपने लोक लौट जाते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि, पितृपक्ष के दौरान पितर अपने परिजनों के आस-पास रहते हैं, इसलिए इन दिनों कोई भी ऐसा काम नहीं करें, जिससे पितृगण नाराज हों। पितृ पक्ष के दौरान ब्राह्मण, जामाता, भांजा, गुरु या नाती को भोजन कराना चाहिए। इससे पितृगण अत्यंत प्रसन्न होते हैं। ब्राह्मणों को भोजन करवाते समय भोजन का पात्र दोनों हाथों से पकड़कर लाना चाहिए, अन्यथा भोजन का अंश राक्षस ग्रहण कर लेते हैं, जिससे ब्राह्मणों द्वारा अन्न ग्रहण करने के बावजूद पितृगण भोजन का अंश ग्रहण नहीं करते हैं। पितृ पक्ष में द्वार पर आने वाले किसी भी जीव-जंतु को मारना नहीं चाहिए बल्कि उनके योग्य भोजन का प्रबंध करना चाहिए। हर दिन भोजन बनने के बाद एक हिस्सा निकालकर गाय, कुत्ता, कौआ अथवा बिल्ली को देना चाहिए। मान्यता है कि इन्हें दिया गया भोजन सीधे पितरों को प्राप्त हो जाता है। पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए। एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है। पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं। पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं। पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है। पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो। पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है। गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है। कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का विधान है। पितृपक्ष सोलह दिन का होता है। हिन्दू पञ्चाङ्ग में १ से ३० तक तिथि न होकर१ से १५ और फिर १ से १५ के दो पक्ष होते हैं। मास के प्रारंभ में कृष्ण पक्ष और फिर शुक्ल पक्ष। शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि पूर्णिमा अर्थात पूर्णमासी है। श्राद्ध पक्ष भाद्र मास की पूर्णिमा से शुरु होकर आश्विन मास की अमावस को समाप्त होता है। हमारे परिजन इन्ही सोलह तिथियों में से किसी एक तिथि पर देह त्याग करते हैं। जिस तिथि को वे देह त्यागते हैं, उसी दिन उनके श्राद्ध का विधान है। हमारे पितृ इस पक्ष में तय तिथि पर पधारते हैं और मंगल दान कर हमें धन्य करते हैं। वे जब सशरीर होते हैं तब भी सदा हमें देते हैं, कृपा करते हैं। शास्त्र कहते हैं कि देह त्याग के बाद भी वे पितृलोक के वासी होकर तर्पण के बहाने हमारा शुभ करने ही पधारते हैं। वे केवल हमारी प्रसन्नता से प्रसन्न होते हैं। हमारी श्रद्धा से तृप्त होते हैं।महाभारत अनुशासन पर्व में कहा गया है-
लोकेषु पितर: पूज्या देवतानां च देवता:।
शुचयो निर्मला: पुण्या दक्षिणां दिशमाश्रिता:।।
अर्थात सभी लोकों में पितर पूजनीय होते हैं। वे देवताओं के भी देवता हैं। उनका स्वरूप शुद्ध, निर्मल एवं पवित्र है। वे दक्षिण दिशा में निवास करते हैं।
तो आइए इस पितृपक्ष में अपने पितरों का सम्मान करें,उन्हें याद करें, उन्हें अपने सात्विक आचरण से तृप्त करें। याद रखे, जो व्यक्ति अपने अतीत को भूल जाता है, निश्चित ही उसका भविष्य चौपट हो जाता है।
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